गर्लफ्रेन्ड - ब्यायफ्रेन्ड की भारतीय संस्कृति

भारतीय समाज में गर्लफ्रेन्ड - ब्यायफ्रेन्ड जैसे शब्द का उपयोग, अब एक ‘‘आम बात‘‘ हो गई है। इसका सबसे बड़ा कारण है, देश की प्राथमिक भाषा ‘‘अंग्रेजी‘‘ और द्धतीय भाषा ‘‘हिन्दी‘‘ का उपयोग होने के कारण आज ‘‘हिन्दी‘‘ विलुप्त सी नजर आने लगी है, और एैसा लगता है, हमारी देव भाषा ‘‘संस्कृत‘‘ से ही अंग्रेजी पैदा हुई है। पूजा-पाठ में संस्कृत सुनने में अच्छी लगती है, उसके तुरंत बाद अग्रेजी बोलना शुरू हो जाता है। यही आजकल के स्कूलो में भी हो रहा है।

हर ‘‘युवा‘‘ आज ‘‘गर्लफ्रेन्ड - ब्यायफ्रेन्ड‘‘ की जिन्दगी जी रहे है। खासकर ‘‘मेट्रो शहर‘‘ तो इस मामले में 95 प्रतिशत युवा इसी जिन्दगी को पसंद करते है। कारण ब्यस्त लाईफ के कारण फेमिली के सदस्य एक दूसरे के सम्पर्क मे नही आ पाते है। इसलिये उन बच्चों का अपनापन उसी टाईम में हमेशा उसके सम्पर्क में रहने वाले या वाली होते है। जिसके बीच वे अपना सुख-दुःख शेयर करते रहते है, और इसी कारण वे कुछ समय तक तो गर्लफ्रेन्ड-ब्यायफ्रेन्ड बन कर जिन्दगी गुजारते हैं, और नौकरी-धंधे में लगते ही घर भी बसा लेते है।

पर जो युवा इस गर्लफ्रेन्ड-ब्यायफ्रेन्ड वाली लाईफ को नही जिये होते है। वे अपनी अधेड़ उम्र में उस कमी को महसूस करते है, और इश्क के ताने-बाने में उलझ जाते है। एैसा ही एक हकीकत हमने सन् 2005 में देखा था। मेरा दोस्त जो एक कॉलसेन्टर कंपनी में ‘‘वर्कफोर्स मेनेजर‘‘ था, वह दिल्ली का रहने वाला था। उसकी कई गर्लफ्रेन्ड थी। उस वक्त उसकी उम्र 27 वर्ष की थी उसका कहना था - यही उम्र है जिन्दगी जी भर के जीने की। इन्ही जिन्दगीयों में, उसकी एक फ्रेन्ड एैसी भी थी, जो 17साल की एक बेटी की मॉ थी। उसका हस्बैण्ड एक खूबसूरत बीबी का पति तो था ही, लेकिन उसकी पत्नी का मेरे दोस्त से यह कहना था- {जो उसने मोबाईल के स्पीकर पर मुझे सुनाया था } -‘‘मेरी कम उम्र में शादी हो गई थी, ये दोस्त -ओस्त, प्यार-वार क्या होता है। ये सब मै नही जानती थी, लेकिन शादी के बाद मुझे ये सब समझ में आने लगा। लेकिन तुम मेरे ब्यायफ्रेन्ड हो, और मै भी, तुम्हारी गर्लफ्रेन्ड बन कर जीना चाहती हूॅ ,प्लीज ! मै अपनी जिन्दगी की बाकी इन इच्छाओं को तुमसे पूरा करना चाहती हूॅ‘‘। दोनो की दोस्ती इन्टरनेट चेटिंग पर हुई थी। वो लड़की मुम्बई में ‘‘जूुहू 10वे रास्ते‘‘ पर रहती थी। मेरे दोस्त ‘‘नवी मुम्बई‘‘ में रहते थे।

हालाकि उसने उस लड़की के इरादो को पूरा किया, दोनो खूब बाते किया करते थे। और मौका मिलते ही वो लड़की अपने पति और बच्चों से छिप-छिप कर इसके साथ घूमने जाया करती थी। पर ये ज्यादा समय उस लड़की को भी नही दे पाता था ,क्योकि उसकी और भी गर्लफ्रेन्ड थीं। दो ‘‘पूना‘‘ में, तीन ‘‘दिल्ली,‘‘ एक ‘‘बैग्लौर‘‘ सबसे महीने मे एक दो बार मिलने भी जाया करता था। बस मिल नही पाता था तो अपनी ‘‘इंग्लैण्ड‘‘ वाली फ्रेन्ड से उसका फोन हफते मे 1 या 2 घंटे के लिये ही आता था, वो उसे बुलाती थी। उसके वीजा के लिये ट्राई करने को कहती थी। उस इंसान के अंदर एक बात और भी थी, अगर लड़कियॉ उससे बात करते-करते ज्यादा ‘‘सीरियस‘‘ हो जाया करती थी, तो ये अपना मोबाईल स्विच आफ कर देता था या फोन आने पर रिसीव नही करता था। जब बार-बार उनका रिसीविंग मेसेज आता तो कही जाकर उठाता था।

एैसे ही एक दिन मेरा दूसरा मित्र जो ‘‘सीए‘‘ बनने के बाद अपनी पहली ‘‘नौकरी‘‘ का इंटरव्यू देने मुम्बई में मेरे पास आया था। तो उसे भी मैने अपने इस मित्र से मिलवाया था। जो कि मेरा रूम पार्टनर भी था। वह उस सीए दोस्त की, उम्र का अंदाजा 25 वर्ष लगाते हुये मुझसे कहा कि ‘‘अपनी जिन्दगी के पच्चीस साल तो इसने किताबों में खो दिये अब ये जिन्दगी क्या जी पाऐगा‘‘। मैने कहा ‘‘ये उसकी लाईफ है ये वो जाने, वो कैसे जीना चाहता है‘‘। इस पर वह मुस्कुराकर रह गया।

हम दोनों पक्के मित्र थे। और रूम पार्टनर होने के नाते वह अपनी पर्सनल लाईफ हमसे शेयर करता था। मुझे भी उसके अंदर की कमियो से कोई लेना-देना नही था हॉ, पर उसके अंदर एक जबरदस्त ‘‘प्रतिभा‘‘ मैने देखा था, जिसके पीछे लड़कियॉ ही नही ‘‘नौकरियॉ‘‘ भी उस इंसान का 6 महीने तक इंतजार किया है। ‘‘बैग्लोर की ‘‘डेल‘‘ कंपनी और मुम्बई की ‘‘इंटेलीनेट‘‘ जिसने उसको असिस्टेन्ट मेनेजर की पोस्ट और 9 लाख का पैकेज ऑफर किया था, पर वह इंसान सिर्फ इसलिऐ अड़ा रहा कि मेरी पोस्ट से असिस्टेन्ट शब्द हटा दो । अब चूकिं कंपनी मे पहले से मेनेजर की पोस्ट थी, उसका पैकेज भी 10 लाख था। लेकिन कंपनी ने इनके लिये ‘‘मेनेजर-।। ग्रेड‘‘ की पोस्ट बना कर इनको ऑफर किया, और पैकेज भी 9.5 लाख का दिया। तो ये काबलियत उसके अंदर थी। अपने अधिकार के लिये कंपनियो को भी घुटने टेकने के लिये मजबूर कर देता था।

उसके नौकरी ज्वाईन करने के बाद, एक बार मौका मिलते ही मै, उसके ऑफिस घूमने के लिये उसके साथ कार मंे बैठ कर मुम्बई के एक उपनगर ‘‘मलाड‘‘ गया। जहॉ उसका ऑफिस था, तो वहॉ का ‘‘क्राउड‘‘ देख कर मै हैरान हो गया। वह ‘‘इंटरनेश्नल कॉलसेन्टर‘‘ था। लंच टाईम हुआ था हम दोनो आफिस कैम्पस में ‘‘कोलड्रिन्क‘‘ सर्व कर रहे थे। मेरी नजरे जिस तरफ जा रही थी तो देख रहा था कि हर तीसरी लड़की के हॉथ में सिगरेट सुलग रही थी। वे सब अपने सहकर्मी { लड़को} से बात-चीत करते हुये कैम्पस मे खड़ीं थी, तभी हमारी नजर एक ऐेसी लड़की पर पड़ी जो सलवार सूट पहन कर आई थी, और उसके माथे पर सिंदूर का एक बड़ा सा टिक्का दिख रहा था। वह ऑफिस के कॉरीडोर से कैम्पस की तरफ बढ़ी चली आ रही थी, उस पर जिसकी भी नजर { वहॉ उपस्थित क्राउड } पड़ती, सभी उसको देखे जा रहे थे। तभी उसकी नजर एक उसके जान - पहचान वाले लड़के पर पड़ी ,वह भी मुस्कुराता हुआ उस पर नजर गड़ाऐ था, तो वह उससे बोली ‘‘यार क्या देख रहे हो, आज मेरा सलवार सूट पहनने का मूड था सो मैने डाल लिया‘‘ हॅसती मुस्कुराती हुई वह पिक-अप, ड्राप वाली एक सेन्ट्रो कार में जा कर बैठ गई।

एक स्क्रिप्ट राईटर होने के नाते लोग मुझे अपनी कहानियॉ और घटनाऐ अक्सर मुझसे शेयर किया करते थे कि शायद हमारी कहानी कही न कही किसी पर्दे का हिस्सा बन जाऐ। लेकिन एक बात जरूर है, आज चाहे ‘‘सिनेमा‘‘ उद्योग हो या ‘‘टेलीकॉम‘‘ उद्योग दोनो ही गर्लफ्रेन्ड-ब्यायफ्रेन्ड के रिश्ते को ही आधार बना कर बिजनेस करते है। नाईट कॉलिंग फ्री का उद्ेश्य भी यही युवा ही है।

पहले देश अंग्रेजो का गुलाम था, अब भारतीय संस्कृति, पाश्चात् संस्कृति की गुलाम है। अब एक बार फिर से ‘‘भारतीय संस्कृति बचाओ आन्दोलन‘‘ के लिये देश को एक ‘‘महात्मा‘‘ तो नही बल्कि ‘‘गांधी जैसे संत‘‘ की आवश्यक्ता है, ताकि आने वाली पीढ़ी यह कह सके कि ‘‘महात्मा गॉधी‘‘ ने अंग्रेजो से देश को आजाद करवाया, और ‘‘संत गांधी‘‘ ने उनसे हमारी ‘‘संस्कृति‘‘ को आजाद करवाया।

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